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फ़रवरी, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मातृभाषा दिवस

मैं तब पूरी तरह एथेस्ट बन चुका था। मेरी भाषा उनकी भाषा इन सब से ऊपर उठ चुका था। ( ऐसा मेरा मानना था।)   इंग्लिश लाइफ स्टाइल, इंग्लिश गाने, इंग्लिश इमोशंस वाली एटीट्यूड आदि मेरे अंदर रच बस चुके थे।  लेकिन वे पल जिसमे मृत्यु मेरे करीब थी,  बेहोशी में बुदबुदाने, दर्द से चीखने वाले शब्द मातृभाषा से आए थे।  नदियां के पार और हम आपके हैं कौन, दोनो एक ही प्रॉडक्शन की एक ही कहानी पर आधारित फिल्में हैं। लेकिन इमोशन के स्केल पर भोजपुरी भाषी नदिया के पार देख कर ज्यादा इमोशनल होंगे।  मैं दावे के साथ कह सकता हुं कि अमेरिका यूरोप के लाइफ स्टाईल में रचे बसे भोजपुरी भाषी के सामने अचानक से नदिया के पार फिल्म देखने का संयोग आए, तब इन भोजपुरी भाषी के अंदर अचानक से कुछ चेंज हो जायेगा। सुक्ष्म मन हमेशा मातृभाषा को सुरक्षित रखता हैं, और चाहे आप किसी भी कंट्री के लाइफ स्टाइल में रचे बसे हो! मातृभाषा से सामना होने पर आंखे गिली होनी तय है।  मां ही मातृभाषा है और मातृभाषा ही मां हैं।  मातृभाषा दिवस की शुभकामना।

The Brighter the light the deeper the shadow

Once Upon a Time. There Was The Brighter the light and the Deeper the shadow. ************************************************ रास्ते जानें पहचानें है लेकिन पैर थके मांदे हैं। सफर कुछ कदमों पर रुका सा है जैसे कही जाना नही चाहता हो।  बिना चिड्डियो वाली आकाश हैं। थकी– उलझी शाम बेरंग सा वक्त के साथ घसीटे जा रही, जैसे रात में गुम हो दिन को भूलना  चाहती हो।   शाम को लेकर मेरा निश्चित मत था कि शाम से ज्यादा दिलकश कुछ भी नही। दर्द और प्रेम से भीगी हुई... बिछड़ने का गाढ़ा रंग।   ढलते हुए सूरज भगवान का आहिस्ते आहिस्ते खोते जाना... चिड़ियों वाली आकाश, चिड्डियो का घर लौटना और थके मांदे उजालों का अंधेरों के आगोश में जाना। वक्त वक्त की बात हैं और इसी वक्त में से निकल कर  कुछ घंटे कोलाहल और निरवता के बीच चुपके से बैठ गए हैं।  ट्रैफिक का शोर घर जाने को बेचैन हैं। चकाचौंध वाली सड़के आगे चल कर अतीत की परछाई लिए सुनी सड़को में तब्दील होते जा रही हैं। इसी सड़क पर आगे चल कर वो जगह आती है। शहर को शहर से माइनस कर देने वाली जगह। लोग अपनी अपनी एकांत से मिलने यहीं पर आते हैं।  रात में यह जगह आकाश को अपने अंदर

हाथ खाली हैं।

ऐसी तो कोई आह नहीं जीवन में  इस जीवन में बचाने योग्य क्या है? बुझ गई न जो बन एक अधरों पर ऐसी तो कोई चाह नहीं जीवन में! खो गई न हो जो अंधकार में सहसा ऐसी ततो कोई राह नहीं जीवन में! पल भर जो अवलंब मुझे दे सकती ऐसी तो कोई थाह नहीं जीवन में! विचलित कर सकती जो नियति के कम को ऐसी तो कोई आह नहीं जीवन में  इस जीवन में है क्या? जरा आंख खोला और गौर से देखो तुम्हारे हाथ खाली हैं। कितने ही भरे हों तो खाली हैं। सिकंदर के हाथ भी खाली हैं।  इस दुनिया में लोग चाहे कितने ही धन से सजे हों, भीतर का मालिक जब तक जागा नहीं, भीतर के स्वामी से जब तक पहचान न हुई, तब तक सब धोखा है। रोओग एक दिन, पछलाओगे एक दिन। मौत जब द्वार पर आकर खड़ी होगी और सब छीन लेगी जिसे तुमने कमाया था; जिसे तुमने इतनी आकांक्षा से पकड़ा थज्ञ, इतनी आतुरता से पकड़ा था। जब सब छिन जाएगा तो तड़फोगे।   मेरे देख, लोग मौत से नहीं डरते -डरते हैं, मौत जो छीन लगी उससे। मौत से तो डरोगी भी कैसे? पौ से तो पहचान ही नहीं है। अपरिचित से क्या डर? कौन जाने मौत अच्छी ही हो, मीठी हो! कौन जाने मौत और नए जीवन का द्वार हो!  मौत से तो कोई पहचान नहीं है तो मौत से क्या

प्रेम में मुस्कुराना

कृष्ण एक मुस्कुराता हुआ प्रेमी। ************************** प्रेम शब्द ही जैसे मुझे कृष्णा की तरफ खींच ले जाता हैं। कृष्ण का जीवन जैसे परमात्मिक जीवन। अच्छे बुरे का कोई चुनाव नही। एक छोर– जहां अच्छे और बुरे दोनों आकर मिलते हैं।   ओशो पुरम में प्रेम पर अक्सर चर्चा होती थी और प्रेम सिमट कर कृष्ण के ऊपर आ जाता था। जैसे कृष्ण को परिभाषित नहीं किया जा सकता वैसे ही प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि शब्दो से सत्य प्रकट नही हो सकता अपितु शब्दो से इसका आभास जरूर मिलता हैं। सबका एक मत था, चाहे वो अमेरिकन हो, यूरोपियन हो चाहे भारतीय। प्रेम परमात्मीक हैं। प्रेम का मतलब कृष्ण है। एक मुस्कुराता हुआ प्रेमी जिन्होंने प्रेम को जिया और अमर कर दिया।  प्रेम मुक्त करता है। स्वतंत्रता लाता हैं। मुस्कुराहटे बड़ी करता हैं। ऐसे प्रेम को जीसस ने ईश्वर कहा हैं। बुद्ध ने ध्यान की अंतिम परिणीति कहा हैं। महावीर ने केवल्य का स्वभाव कहा।  तभी तो कृष्ण ताउम्र मुस्कुराते रहे इसके वावजूद की वो गुकुल से दूर रहें।  एक बार जो  प्रेम की गलियां छूटी फिर पलट कर देखा तक नहीं।  शायद प्रेम नदी जितना पवित्र होता हैं। शा

नीला पहाड़

नीला पहाड़ ----------------- नदी का पानी हर चीज को अलविदा करते आगे बढ़ता  जाता हैं। गांव, घर, चेहरे, हरेभरे मैदान, सूखे पेड़, उजाड़ रेगिस्तान, पहाड़, और किसी की प्यासी आंखे! सभी को अंतिम विदा करते बस बढ़ता ही जाता है।  यह जानते हुए भी कि आगे बढ़ना लगातार कुछ खोते जाना हैं। अकेले होते जाना है। मैं भी बस चल पड़ा हूं।  किसी दिन जब अंधेरा भारी होता हैं और चांद दिखता नहीं तो हम अनमने हो अनिश्चय में धीरे-धीरे बढ़ने लगते हैं। उस रात भी वैसा ही अंधेरा पसरा था। हर कदम के बाद अंधेरा और घना होता जा रहा था।  अंधेरों में जब मौन पसरा हो तो वह अंधेरा डरावनी और रहस्यमई लगने लगती है। कोई ओर ना छोर! कहां जा रहे पता नहीं। कहां जाना है निश्चित नहीं।   वो रात भी ऐसी ही थी- अंधेरा किसी अजगर कि भांति मुझे निगल जाना चाहता था। अंधेरों में खोता जा रहा था- शून्य सा!  लड़खड़ाते कदम रुकता जा रहा था और सामने दिख रहा नीले पहाड़ कि भांति बस जम जाना चाहता था।  मै भी उस नीले पहाड़ कि तरह ही कभी था। अनसुलझा, बेपरवाह, पूरब से चलने वाली हवाओं के साथ उड़ने वाला। सुंदर! मुस्कुराता हुआ हरा भरा। सूरज की रौशनी से लाल - उजला -

अबकी बार यह पूरब से चलेगा

अबकी बार यह पूरब से चलेगा। •••••••••••••••••••••••••••••••• अच्छा या बुरा नही होकर एक वक्त हैं। जो वक्त बेवक्त खाली हो जाता हैं। उस खालीपन के अंदर कई मौसम एक साथ रहा करते हैं।  आज चमकती हुई धूप हैं। सर्द मौसम बहुत पास से गुजर रहा है। धूप निश्चिंत हैं कि अब सर्द मौसम बाधा नहीं बनेंगे, लेकिन बीच बीच में  बेमकसद भटकती असंतुष्ट बदली धूप को आशंकित करती हैं। इस आशंका को तब और बल मिलता हैं, जब हवाएं अट्टहास करती पास से गुजर जाती हैं।  शोर करता यह उद्वेलित मालूम पड़ता हैं जैसे बेमतलब का हो।  बेमतलब का होना इसे और जंगली बनाता हैं। उपेक्षा और तिरस्कार से सख्त हो चुका, यह लोगो को दर्द दे कर अपना गुस्सा निकालता है। अपनी पहचान खातिर बार–बार शोर करता अपनी मौजूदगी का अहसास कराता हैं।  लेकिन इन जाड़ों के बाद वाली धूप में तुम्हारा क्या काम?    वेग से गुजरती इन हवाओं को देख धूप थोड़ी देर के लिए ठिठक पड़ती हैं। जानी पहचानी लेकिन पहचान का कोई सिरा नजर नहीं आता। मिलने की खुशबू आ रही , लेकिन कैसे मिले थे याद नही!  हवाएं शिकायती और उम्मीद की मिलीजुली नजरों से धूप को ताक रही हैं। जैसे कुछ इशारा करना चाह रही ह

एक दिन, वे दिन चले गए।

एक दिन, वे दिन चले गए। ———————————— एक शाम हैं लेकिन शाम जैसी लग नही रही।  दिन से बेदखल शाम रात के हिस्से आ जाती हैं।  रातें ज्यादा काली होती हैं। मुर्दा सपने चमगादड़ों की भांति उल्टा लटके मिलते हैं।  रात की साए में लिपटी सुबह, दबी–सहमी सी होती हैं।  रहस्यों से ओतप्रोत, खुली खिड़की से आता उजाला डरावनी मालूम पड़ता है।   धूप और छाया मिलकर रहस्यों को बुन रहे हैं। शायद अब यह मौसम बदलने वाला हैं।  एक चुप हैं जो चुप चाप आकर कमरे में बैठ गया हैं।  उजाले अंधेरों से बात करना चाहते हैं पर उजालों में अंधेरों से बात नही होती।  एक घड़ी है जो टिकटिक करती गोल घूम रही हैं और उसकी शक्ल बदलती जा रही हैं। यादों की पतली रेखा शक्ल को पहचान से जोड़ रखी हैं। यादों से बाहर हो जाने की छटपटाहट में ये पतली रेखा और कसती जा रही है। गले तक कस आई यह छटपटाहट अब घड़घराहट में बदल चुकी हैं।  अनायास था सब। हसरतों की पगडंडी पर चढ़ना रुकना फिसलना, फिसल कर वापस मुड़ना... फासले बड़े होने लगे थे।  हजारों ऐसे फासले, जो बड़े होने लगे थे वे चल पड़े थे। हम पीछे रह गए थे। चलना चाहे भी तो पकड़ नही पाए थे। आंखो में सूनाप

पता नहीं किस मोड़ से गुजर कर इस मोड़ पर चलें आए।

पता नही किस मोड़ से गुज़र कर इस मोड़ पर चलें आए।  शब्दों की है यह दुनियां। शब्दों से बने हम और आप। शब्द हैं पहचान— गहरी या उथली। उजली या काली। खोखली? शब्द – जैसे हम बोलना सीखते हैं वैसे ही एक– एक शब्दों को मार,  खामोश होना सीखते हैं। सबसे पहले जाती हैं हंसी की आवाज, खिलखिलाना, किसी को पुकारना... पसरती सन्नाटा और अंततः  खामोश हो जाते हैं।  एक हंसता खेलता रोता शब्द एक दिन अचानक से खामोश हो जाता हैं। खो जाती हैं सारी आवाज़ें। आवाजें जो बंद खिड़की को खोलती थी, हसरतों की लाल किरण को अंदर लाती थी। सपने बुनती थी। शिकायते करती हुई गुस्से से लाल हो पश्चिम में धीरे धीरे डूब जाया करती थी। शब्द जब अचानक से खो जाते हैं तो ऐसे में किसे पता हैं – वो रौशनी में घुली आवाज़ें किन बंद दरवाजों को खोलती थी। किसे पता हैं, आवाज़ें बन किस  हंसी को बाहर खींच लाती थी।   मगर ये शब्द अचानक से नही मरते– खामोश नही होते। खामोश होने से पहले शोर करते है। दिमाग को फाड़ देने वाला शोर। यह शोर भी एक प्रश्न होता हैं कि क्या बोले या बोलने का क्या सार!  और जब ये शब्द खामोश हो जाते हैं। नज़र आता हैं रेगिस्तान – विर