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नीला पहाड़

नीला पहाड़
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नदी का पानी हर चीज को अलविदा करते आगे बढ़ता  जाता हैं। गांव, घर, चेहरे, हरेभरे मैदान, सूखे पेड़, उजाड़ रेगिस्तान, पहाड़, और किसी की प्यासी आंखे! सभी को अंतिम विदा करते बस बढ़ता ही जाता है। 
यह जानते हुए भी कि आगे बढ़ना लगातार कुछ खोते जाना हैं। अकेले होते जाना है। मैं भी बस चल पड़ा हूं। 
किसी दिन जब अंधेरा भारी होता हैं और चांद दिखता नहीं तो हम अनमने हो अनिश्चय में धीरे-धीरे बढ़ने लगते हैं। उस रात भी वैसा ही अंधेरा पसरा था। हर कदम के बाद अंधेरा और घना होता जा रहा था। 
अंधेरों में जब मौन पसरा हो तो वह अंधेरा डरावनी और रहस्यमई लगने लगती है।
कोई ओर ना छोर! कहां जा रहे पता नहीं। कहां जाना है निश्चित नहीं।  
वो रात भी ऐसी ही थी- अंधेरा किसी अजगर कि भांति मुझे निगल जाना चाहता था। अंधेरों में खोता जा रहा था- शून्य सा! 
लड़खड़ाते कदम रुकता जा रहा था और सामने दिख रहा नीले पहाड़ कि भांति बस जम जाना चाहता था। 
मै भी उस नीले पहाड़ कि तरह ही कभी था। अनसुलझा, बेपरवाह, पूरब से चलने वाली हवाओं के साथ उड़ने वाला। सुंदर! मुस्कुराता हुआ हरा भरा। सूरज की रौशनी से लाल - उजला - काला- सुनहरा- गुलाबी होता रहता था। शाम ढलते ही कई रंगों को एक साथ
 ओढ़ रंगीन हो जाता था। रात की रानी अंधेरों में चुपके से आकर मुझे थपकी दे एक प्यारी नींद सुला जाती थी। 
सामने दिख रहा नीला पहाड़ अब बदल चुका हैं - जो ठंडी आधी रात को कोहरे से भस्म हो चला हैं। वक़्त की धुंध में अपने कई हिस्सों को खो चुका हैं। और कुछ अभी भी धीरे-धीरे खोता जा रहा, अपने आप से दूर होता जा रहा है। तूफानी धूल उड़ाती हवा के साथ उसका भी कुछ हिस्सा रोज टूट रहा हैं। वे  हिस्से जो टूटते जा रहे हैं... शायद वे अनुपयुक्त थे। वे शायद बाकी बचे  सह अस्तित्व के लिए अनुकूल नहीं थे। 
मै भी चलते-चलते कुछ ना कुछ खोता जा रहा हूं। ये हवाएं और तूफान मेरे गौरवशाली ढांचे से टकराता है। अप्राकृतिक ढांचे को उड़ा लेे जाता हैं। मुझे भी कुछ दूर तक धक्के दे साथ में उड़ा ले जाता हैं। और फिर मुझे केवल मेरे सच्चे अवषेशों के साथ छोड़ जाता हैं। मेरी आंखे बंद हो जाती हैं और उस समय को याद करती हैं जब मैंने अपने से खुद को बहुत बड़ा महसूस किया था। 
पास ही कहीं खाई में जम चुकी काई के ऊपर गिरते पानी का शोर मेरी आंखो को खोलता हैं और मै उस खाई में गिरने से बच जाता हूं। 
और उतर कि तरफ मुड़ते हुए पहाड़ियों के रहस्यों के साथ आगे बढ़ जाता हूं।
आंखे रहस्यों से तब भी बंद हो ही जाती है।

© अविनाश पांडेय

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