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एक दिन, वे दिन चले गए।

एक दिन, वे दिन चले गए।
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एक शाम हैं लेकिन शाम जैसी लग नही रही। 
दिन से बेदखल शाम रात के हिस्से आ जाती हैं। 
रातें ज्यादा काली होती हैं। मुर्दा सपने चमगादड़ों की भांति उल्टा लटके मिलते हैं। 
रात की साए में लिपटी सुबह, दबी–सहमी सी होती हैं।
 रहस्यों से ओतप्रोत, खुली खिड़की से आता उजाला डरावनी मालूम पड़ता है। 
 धूप और छाया मिलकर रहस्यों को बुन रहे हैं। शायद अब यह मौसम बदलने वाला हैं। 
एक चुप हैं जो चुप चाप आकर कमरे में बैठ गया हैं।
 उजाले अंधेरों से बात करना चाहते हैं पर उजालों में अंधेरों से बात नही होती। 
एक घड़ी है जो टिकटिक करती गोल घूम रही हैं और उसकी शक्ल बदलती जा रही हैं। यादों की पतली रेखा शक्ल को पहचान से जोड़ रखी हैं। यादों से बाहर हो जाने की छटपटाहट में ये पतली रेखा और कसती जा रही है। गले तक कस आई यह छटपटाहट अब घड़घराहट में बदल चुकी हैं। 
अनायास था सब। हसरतों की पगडंडी पर चढ़ना रुकना फिसलना, फिसल कर वापस मुड़ना...
फासले बड़े होने लगे थे। 
हजारों ऐसे फासले, जो बड़े होने लगे थे वे चल पड़े थे। हम पीछे रह गए थे। चलना चाहे भी तो पकड़ नही पाए थे। आंखो में सूनापन छोड़ ये फासले अब ओझल होने लगे थे। 
हालाकि रास्तों ने हर किसी का रास्ता बन जाने का खूब पाश्चताप किया था। 
सफर, रुकता–चलता,  डूबता–उलझता, उदास पैर। 
कौन देश कौन मुसाफिर?
एक दिन, वे दिन चले गए।

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