--- रेगिस्तान की प्रेमिका कभी मैं जल नहीं था। मैं भी धरती था—मटियाला, कोमल, छाया से भरा हुआ। और वो… वो मेरी देह पर चलती थी नंगे पाँव। उसके पैरों की छापें मिटती नहीं थीं। वो चलती थी तो रुक जाती थी हवा, और समय भी। उसकी हँसी में बारिश की गंध थी। उसके हाथों में बीज थे—प्रेम के, प्रतीक्षा के। वो बोती थी सपने, मैं उगाता था सावन। तब मैं रेगिस्तान नहीं था। मैं उसके भीतर का हरा भूगोल था, उसकी आँखों से बहता हुआ। वो कहती थी—"एक दिन सब रेत हो जाएगा। तू भी, मैं भी। और हमारी स्मृति भी इतनी हल्की हो जाएगी कि उड़ जाएगी इस हवा में।" मैं हँसता था, क्योंकि मैं नहीं जानता था वक़्त की भूख। फिर एक दिन वो गई। ना युद्ध हुआ, ना विद्रोह। बस ख़ामोशी थी, और उसका जाना। और उसके बाद, धीरे-धीरे सब सूखता गया। पहले मेरा पानी, फिर रंग, फिर आवाज़। मैंने उसकी छाँव के बिना जीना सीखा, और फिर मैंने जीना छोड़ दिया। तब से मैं रेगिस्तान हूँ। विस्तृत। ख़ामोश। अकेला। अब वो लौटे भी, तो मुझे पहचान न पाए। अब मैं उसकी स्मृति नहीं, उसका शाप हूँ। हर वो जगह जहाँ वो हँसी थी, अब वहाँ गर्म रेत है। पर जब रात आती है, और चाँद मेरी उ...