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सुबह की चाय

सुबह की चाय मीठी होनी चाहिए। रात की कड़वाहट घुल जाती हैं। 
बेड टी की आदत महीनो पहले छूट चुकी थी। अब चाय की याद भी मुश्किल से आती थी। 
उन दिनों वह जहां रह रहा था वहां चाय की जगह उबले पानी में कुछ पहाड़ी जड़ी बूटियों को डाल एक शक्तिशाली पेय से दिन की शुरुआत होती थी।
 दुकान चलाने वाली महिला उसे दुकान में घुसते देख हंसती थी, शायद वह इस पेय को चाय समझ कर पीता था इसलिए। 
उसकी आवाज मुश्किल से उनलोगो ने सुना होगा और उन्हें ऐसा लगता था कि वह गूंगा हैं। इशारों इशारों में लेन– देन होता था।
एक सुबह नारियल के पेड़ वाली उस दुकान में घुसते ही हंसने और उसे लक्ष्य कर बोली गई बात सुनाई दी। 
यहाँ स्वर्गबाट ​​निर्वासित देवता आउनुहुन्छ। (लो आ गए स्वर्ग का कोई निर्वासित देवता) 
उनकी बातें सुन वह भी मुस्कुरा पड़ा था। वह थोड़ी बहुत यह भाषा समझता था,पर उन्हें लगता था कि उसे इसकी समझ नही।  शायद उसके लिए यह सबसे सटीक पहचान थी। 
एक खूबसूरत दिल जिसने कभी किसी को पीड़ा नही पहुचाई होगी, आज खुद पीड़े में था।
वक्त की साजिशे देख ऐसा लगता था कि सजा का ये सिलसिला कभी खत्म ही नही होगा। संभलने की कोशिसे करता और फिर से गिरा दिया जाता। 
कौन सोच सकता था कि एक हंसता बोलता लड़का यू खामोश हो जायेगा। सबकुछ बदल जायेगा और ऐसा बदलेगा की पहचान का कोई सिरा नजर नहीं आएगा। 
दोपहर की तरह निर्जीवता सुबह से ही उसके आस पास जमा हो जाती थी। 
कम आबादी वाले उन क्षेत्रों में हवाओं का शोर ही एक जाना पहचाना था। कुछ ऐसा था जिसे वह कस कर पकड़े रहता।  हवाओं को ले जाने नही देना चाहता था।  मगर वक्त के साथ चलने वाली ये हवा बलवान था। रोज कुछ ना कुछ छीन ही ले जाता और बदले में दुख सहने खातीर आंसू दे जाता था। 
खिड़की से दूर एक सुनसान रास्ता दिखाता था जो अक्सर तन्हाइयों से लिपटे मिलता था। वह रोज उस जगह जाने का सोचता। 
वह एक शाम थी और बुझती जा रही रौशनी में घुंघलका पसरा था। चुप्पी थी और चंद शक्ले आ जा रही थी। वह उस रास्ते पर बढ़ता जा रहा था। रास्ते की पहचान को लेकर कोई जिज्ञासा नही थी। 
वह सुबह होने तक उन रास्तों पर फिरता रहा था। ना रास्ते ने कुछ बोला ना उसने कुछ पूछा।  कई सवाल थे पूछने को मगर रास्ता उसके तरफ से उदासीन ही बना रहा। 
शायद रास्ता उससे ज्यादा अकेला था। उनकी राह ताकते ताकते जो इन्हीं रास्तों से होकर गुजरे मगर फिर वापस नही लौटे। 
जो वक्त के साथ बदलते नही उन्हें वक्त अकेला छोड़ आगे बढ़ जाता हैं। 
ये उदासी पुरानी हैं। 
घुटन, बेबसी, चोट, और खोते जाने के बाद ऐसी ही उदासी पसर जाती है। 
संवाद जैसे बर्फ की तरह जम जाते हैं। कैसे पिघलेंगे मालूम नही। अवचेतन की भाषा हमें करीब लाती हैं।  थोड़ी देर बाद हम उन्ही रास्तों पर बढ़ जाते है जो एक दूजे से दूर ले जाता है। उन दोनों के बीच  एक भाषा थी जो निर्जीव हो चुकी थी। 
राह किनारे कुछ पेड़ ठंड के ठिठुरन में बर्फ का चादर ओढ़े खड़े थे। सहमे से। 
 कई बातें  पेड़ से कहना–सुनना चाहता था अगर वे बोल सुन सकते तो। 
बचपन में सुना और पढ़ा था कि जिन पहाड़ों पर सबसे ज्यादा ठंड पड़ती है वह जगह प्रेतात्माओ का पसंदीदा जगह होता हैं। वे उधर रहते हैं।
उन दिनों डर भी नहीं लगता था। देर रात तक भटकता रहता था।
यह सुबह के ठीक पहले वाली घनी अंधेरी रात थी।  जब रास्ते भी चिड्डियो की आवाजे सुन जगने लगे थे। 
 भीतर का अंधेरा और बाहर पसरी अंधेरा मिलकर एक रौशनी का निर्माण कर रहे थे। 
शायद कल का आसमान सूरज से सुसज्जित होगा। धूप खिलेगा। 
यह विदा हो रहा मौसम, रोज अपना कुछ निशान छोड़ता जा रहा था। शायद यह हमेशा के लिए मेरे से दूर जा रहा था।

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