दिन गुजर गए, हम किधर गए, पीछे मुड़ कर देखा तो पाया, सब ठहर गए। ----------------------------------------------------------------- इस साल की कुछ आखिरी घंटे बचे हैं। ये आखिरी कशमकश, कसमसाहट पीछे लिए जा रही है। विदा होने की बेचैनी ढेर सारा बात करना चाहती हैं। बहुत कुछ याद करना चाहती है। उसे भी जिसपर धूल जम चुके है मगर कभी सीने से लगा रखे थे। वे अजनबीपन से शुरू हुआ सफर, वे गलियां, बाज़ार की ट्रैफिक, धीमी रोशनी वाली टेबल, उसकी हड़बड़ाहट। सफर के बाद की ताजगी। उसकी मुस्कुराहट। सुबह के ओस में भीगी उसकी कोमलता। उसके साथ मिलने वाला सुकून। खिलखिलाता हुआ दिन, वो चांद वाली चमकती रात। रात में शहर का खाली हो जाना। चांद भी परेशान कि आखिर देर रात तक जागता कौन है? और सोता कौन है? -आसमान। वे नींद से खाली रातें- काली- डरावनी रात। दोपहर की तपिश। ठंड की ठिठुरन और सूनी रातें। बरसात में उसका भीगना और उस पानी का मेरी आंखो में आना! कितना कुछ छूट रहा। अकेला खड़ा बादल की तरह मैं इस बचे हुए कुछ घंटो को पकड़ने खातिर बरस पड़ा हूं। अन्तिम मुलाकाते, आखिरी बार पीछे मूड कर देखना पास खीं...
हम आंखे खोलते हैं, आंखो को कुछ भा जाती है। मन सोचता है कि काश यह मेरा होता। विचारो द्वारा इच्छाओं का जन्म होता है और घनीभूत होते विचार हमे चाहते ना चाहते उस ओर धकेल देते है। इच्छाओं का जन्म हुआ है तो मृत्यु आवश्य होगा लेकिन इच्छाओं की मृत्यु सहज नहीं होती। इसका पूरा होना ही मृत्यु है चाहे वास्तविकता में पूरा हो चाहे कल्पना में।