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'डिजीज ऑफ मी'

'डिजीज ऑफ मी'
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तब मेरा आत्मसम्मान उफान पर था। जरा - जरा सी बातें आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती मालूम पड़ती थी। तब मैं अभी-अभी  दुनियां के जंगली भीड़ में निकला ही था। कोई इधर हमला करता कोई उधर तो कोई सामने से! तो कोई चुपके से पीछे वार करता। मेरा आत्मसम्मान भी      'डिजीज ऑफ मी' से पीड़ित था। मेरे साथ ही ऐसा क्यों? मेरे साथ ही ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने जब उसका कुछ बिगाड़ा नहीं तो वो मेरा कैसे बिगाड़ सकता हैं? 
आह... इसने तो उल्टे मेरी इंसल्टी कर दी! अरे! यह तो उल्टा मेरे साथ बतमिजी भी कर रहा! 
आत्मसम्मान में सेंध लगनी शुरू थी, अब मेरी बचाने की कोशिश भी आधे - अधूरे मन से ही हो रहा था क्योंकि अब मै जंगली दुनिया के हिंसक जानवरों के बीच में था जिनके लिए मानवता किताबो की बात थी तो मुझे अपना पूरा ध्यान उनसे बचने में ही लगानी थी। 
इन्हीं जंगलों और जानवरों के बीच मैंने सीखा कि जानवर अपने स्वभाव से पेश आएंगे और मुझे अपने स्वभाव को बचाएं रखना हैं।
असमंजस से भरे हुए उन दिनों मेरे अंदर कई सवाल थे जिसको पूछने का सबब नासमझी ही समझी जाती या कोई गुरु मिल नहीं पाया था जिससे मै सवाल करता। वैसी ही किसी भरी दोपहरी तपने के बाद शाम के धुंधलके में पार्क के बेंच पर बैठे ठंडी हवा ने मुझे यह बताया था - दिल ( विजडम) जानता हैं कि हर सवाल का जवाब नहीं होता! बीतते समय के साथ सवाल खुद जवाब बनने लगता हैं अगर आप वाकई धैर्य के साथ  आगे बढ़ चुके हो तब। 
समय गुजर रहा था... मै भी समय के रथ पर सवार साथ आगे बढ़ता था मगर जरा भी चूक होने पर गिर पड़ता था। यह गिरना सिर्फ गिरना नहीं था, दर्द के स्याह सागर में डूबने उतराने जैसा था। खुद को कई टुकड़ों में देखता, बिखर चुके टुकड़ों को बटोरता, हिम्मत कर वापस से जोड़ता और फिर से समय के रथ के पीछे दौड़ पड़ता... लेकिन तब तक समय दूर... काफी दूर निकल चुका होता था। 
ऐसे ही किसी पतझड़ वाले उदास मौसम में मैंने अपने आत्मसम्मान को दो भागों में बंटे देख चौक गया था। यह क्या! अरे! इसे तो मै आत्मसम्मान मान रहा था? अरे!                 यह तो   ' डिजीज ऑफ मी' निकला? गॉड! 
यह तो अहंकार है जो गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर होता है! तो क्या अभी तक मै सांप को पाल रहा था? मन चौक उठा था और सोंच रहा था " मुझे अपने अंधेरे कोनों में उजाला भर देनी है ताकि कोई शत्रु उसमें छुप कर रह नहीं पाए"
नीले आसमान को पतझड़ से कोई लेना देना नहीं था। वो शानदार दिख रहा था। शानदार चीज़े आकर्षित किया करती हैं। मै भी आकर्षित था, नजरे पूरे आसमान को समग्र देख रही थी। मन हल्का था इसलिए शांत होता जा रहा था।
 दूर आसमान में एक कौवा बाज के पीछे दौड़ रहा था, कौवा को यह गलतफहमी हो रही थी कि बाज उससे डर कर भाग रहा हैं। मुझे हंसी आ रही थी क्योंकि मुझे पता था कि बाज कौवा को उलझाएं हुए दूर बहुत ऊपर आकाश में लेे जाएगा जहां ऑक्सीजन बहुत कम होगा और वो कौवा दम घुटने के कारण खुद नीचे गिर पड़ेगा। 

अविनाश पांडेय

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