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सच और भ्रम

एकांकी: सच और भ्रम पात्र: 1. मनुष्य – असमंजस में पड़ा हुआ। 2. सत्य – स्थिर, गंभीर, अडिग। 3. भ्रम – चंचल, आकर्षक, छलपूर्ण। (मंच पर अंधेरा। धीरे-धीरे हल्की रोशनी होती है। मनुष्य बीच में खड़ा है, उलझन में। सत्य और भ्रम उसके सामने हैं—एक शांत, दूसरा मोहक।) भ्रम (मुस्कुराकर): जीवन आसान है, बस बह जाओ! जो अच्छा लगे, वही सही है। कोई बोझ, कोई सवाल नहीं। सत्य (दृढ़ स्वर में): आसान रास्ता हमेशा सही नहीं होता। जो चमकता है, वह सच नहीं होता। मनुष्य (घबराया हुआ): लेकिन सत्य कठिन है, पीड़ादायक भी! भ्रम (हंसकर): और मैं? मैं सुखद हूँ, मनमोहक भी! बस आँख मूंदो और आनंद लो। सत्य (कड़क स्वर में): आँखें खोलो! भ्रम पलभर का सुख देता है, लेकिन गिरावट भी उसी से शुरू होती है। (मनुष्य भ्रम की ओर बढ़ता है, लेकिन ठिठक जाता है। एक क्षण रुकता है, फिर सत्य की ओर मुड़ता है। भ्रम फीका पड़ता है, मंच पर प्रकाश फैलता है।) मनुष्य (निर्णयात्मक स्वर में): सत्य कठिन सही, पर स्थायी है। मैं भ्रम से मुक्त हूँ! (पर्दा गिरता है।)
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रेगिस्तान की प्रेमिका

--- रेगिस्तान की प्रेमिका कभी मैं जल नहीं था। मैं भी धरती था—मटियाला, कोमल, छाया से भरा हुआ। और वो… वो मेरी देह पर चलती थी नंगे पाँव। उसके पैरों की छापें मिटती नहीं थीं। वो चलती थी तो रुक जाती थी हवा, और समय भी। उसकी हँसी में बारिश की गंध थी। उसके हाथों में बीज थे—प्रेम के, प्रतीक्षा के। वो बोती थी सपने, मैं उगाता था सावन। तब मैं रेगिस्तान नहीं था। मैं उसके भीतर का हरा भूगोल था, उसकी आँखों से बहता हुआ। वो कहती थी—"एक दिन सब रेत हो जाएगा। तू भी, मैं भी। और हमारी स्मृति भी इतनी हल्की हो जाएगी कि उड़ जाएगी इस हवा में।" मैं हँसता था, क्योंकि मैं नहीं जानता था वक़्त की भूख। फिर एक दिन वो गई। ना युद्ध हुआ, ना विद्रोह। बस ख़ामोशी थी, और उसका जाना। और उसके बाद, धीरे-धीरे सब सूखता गया। पहले मेरा पानी, फिर रंग, फिर आवाज़। मैंने उसकी छाँव के बिना जीना सीखा, और फिर मैंने जीना छोड़ दिया। तब से मैं रेगिस्तान हूँ। विस्तृत। ख़ामोश। अकेला। अब वो लौटे भी, तो मुझे पहचान न पाए। अब मैं उसकी स्मृति नहीं, उसका शाप हूँ। हर वो जगह जहाँ वो हँसी थी, अब वहाँ गर्म रेत है। पर जब रात आती है, और चाँद मेरी उ...

मेरी तीन साहित्यिक रचनाएं।

"मेरी तीन साहित्यिक रचनाएं"                    1 ।।समय के खुरदरे काग़ज़ पर।। किसी ने एक रेखा खींची थी शब्द नहीं थे, लेकिन अर्थ भारी थे — जैसे पुराने जूतों में भरी हुई यात्रा काँपती लौ ने कहा — मैं बुझूँगी नहीं जब तक भीतर की अंधेरी बात ख़ुद को कह न ले हर दीवार पर कोई पुराना धब्बा है जो कहता है — यहाँ कभी कोई रोया था, चुपचाप पेड़ हवा से पूछता है — क्या गिरना ही मेरा उत्तर है? हवा कहती है — गिरते हुए ही बीज बनता है कुछ सन्नाटे बहुत दूर से आते हैं जैसे किसी पुराने संवाद की अबूझ गूँज और हम — अपनी ही परछाई में हर रोज़ कुछ खोते हैं जैसे प्यास, पानी के पास होकर भी कम हो जाती है तो अब अपने भीतर उतरना सीखो जैसे जल में जल उतरता है बिना आवाज़, बिना नाम और जब लौटो — तो अपने साथ थोड़ी ख़ामोशी लेकर लौटो ताकि दुनिया को कभी खुद से सुनने की आदत पड़ जाए।       अविनाश पाण्डेय  --- 2 || यादों की कोठरी || एक पुरानी कोठरी है दिमाग़ के सबसे पीछे जहाँ धूल नहीं जमती सिर्फ़ साँसें ठहरी रहती हैं वहीं पड़ी है वो हँसी जो अधूरी रह गई थी एक गिल...

दिल अब भी गीला हैं

’जहां मैं हूं ‘

 "जहाँ मैं हूँ" शुरुआत कहाँ हुई, ये मालूम था। एक रोशनी थी, एक रोशनी में आँख खुली। और अंत? वो भी साफ़ है। एक दिन सब बंद हो जाएगा। साँसें, आवाज़ें, ख्वाब—सब। इसमें कुछ नया नहीं है। जो चीज़ हमेशा अनजानी रही, वो था ये बीच का हिस्सा। यही हिस्सा सबसे मुश्किल था और सबसे सच्चा भी। इसी में मैंने खुद को खोया, और फिर पाया। बहुत कुछ चाहा था एक वक़्त में। भागा, टूटा, लड़ा, हँसा भी… पर जितना ज़्यादा चीज़ों का पीछा किया, उतना ही खुद से दूर होता गया था।  एक दिन बेचैन शहर के एक शांत दुपहरिया में अचानक से एक समझ हवाओं के साथ अंदर प्रवेश किया था —जिस चीज़ का पीछा करोगे, उसके आख़िरी सिरे पर तुम ही खड़े मिलोगे। वक़्त की रफ़्तार में घूमते-घूमते आदमी आखिर खुद के ही पास लौट आता है। बचने की कोई जगह नहीं है। जो मेरा हिस्सा हैं, वो मुझे समझेगा। वो मुझे ढूंढने की कवायद नहीं करेगा। समझ और खोज पर्यायवाची होते है।  वो शोर में नहीं ढूंढेगा मुझे। किसी ढलती धूप में मेरी चुप्पी पढ़ेगा। वो जानता होगा कि मैं वहीं हूँ—किसी पुराने गीत की तरह...किसी शाम के सन्नाटे में, या एक कप चाय के पहले घूँट में।...

अराजकता, राजनीति, भेड़ भीड़

बात 2013/14 की रही होगी, जब हमलोग अन्ना हजारे को मंच से मिमियाते देख उन्हें शेर मानने की गलती कर बैठे थे। बाद में विवेकानंद फाउंडेशन के बारे में जान कर अपने को ठगा महसूस भी किए थे।  उन्हीं दिनों मेरा दोस्त जो अन्ना का विरोध करता था, वो एक संत से बराबर मिलता रहता था। उस संत के बारे में सुन – सुन कर उनके प्रति जिज्ञासा भी उत्पन्न हुई थी। मेरा दोस्त मुझे वहां ले जाना नहीं चाहता था क्योंकि उसके अनुसार मैं इंप्लसिव था और वो संत गलत सवाल करने पर जोर से डंडा मारते थे।  उस संत के अनुसार व्यक्तियों में अराजकता की शुरुआत हो चुकी है और दिन पर दिन यह दोगुना होता जाएगा।  अराजकता से आपका क्या मतलब?– मेरा मतलब व्यक्तिगत अराजकता से है, जैसे– आदमी भेड़ बनेगा, तर्क से उसका कोई वास्ता नहीं रहेगा, सूचनाओं को हूबहू स्वीकार करेगा। भ्रम सत्य को ढकता चला जाएगा और एक समय ऐसा भी आएगा जब सत्य की कोई झलक मिलनी भी बंद हो जाएगी और जैसा भेड़ का नियति होता हैं, स्वादिष्ट गोश्त खातिर खत्म कर दिया जाएगा। उन्हीं दिनों मेरा दोस्त एक एकांकी को निर्देशित किया था जिसका फोटोकॉपी मेरे पास रह गया था, जिसे मैं हूब...

वजह बेवजह होती हैं।

वजहें बेवजह होती हैं... कभी-कभी हम ज़िंदगी में किसी चीज़ के पीछे भागते हैं — एक मुकाम, एक इंसान, एक ख्वाब — ये सोचकर कि जब वो मिल जाएगा, तो सब ठीक हो जाएगा। मगर जब वो मिल भी जाता है, तो दिल के खाली कोने वैसे के वैसे रह जाते हैं। तब एहसास होता है कि शायद हम जिसे वजह मानकर जी रहे थे, वो खुद एक बेवजह तलाश थी। इश्क़ में भी ऐसा ही होता है — हम किसी से मोहब्बत कर बैठते हैं, बिना ये सोचे कि क्यों। जब कोई पूछता है, "तुम उसे इतना चाहते क्यों हो?" तो हमारे पास कोई ठोस जवाब नहीं होता। सच तो ये है कि मोहब्बत की सबसे बड़ी वजह यही है कि उसकी कोई वजह नहीं होती। कभी-कभी हम किसी से नाराज हो जाते हैं, रूठ जाते हैं, यहां तक कि उनसे दूर चले जाते हैं। मगर जब खुद से पूछते हैं कि असल ग़लती क्या थी, तो जवाब धुंधला सा लगता है। शायद दर्द की सबसे बड़ी सच्चाई यही है — वो बिना वजह भी जिंदा रहता है। और कभी ज़िंदगी हमें ऐसे मोड़ पर ला खड़ा करती है, जहां हम हार मान लेते हैं, बिना जाने कि हार किससे हो रही है। हम थक जाते हैं, बिना जाने कि किससे लड़ रहे हैं। शायद, ये लड़ाई भी बेवजह होती है — जैसे जीना कभी-कभी ...